मधुशाला
बादल अपना-अपनापन अगणित बूंदों में,बूंदे अपना -अपनापन जल- धाराओं सार नदियों में,और नदियाँ अपना अपनापन समुद्र में खोने को खोज आतुर है,और वह समुद्र भी तो हर समय विक्षुब्ध रेकर किसी ऐसे की खोज कर रहा है जिसके चरणों में वह अपनी सम्पूर्ण जलराशि अर्ध्य रूप में अर्पित करके रिक्त हो जाये पृथ्वी अपना अपनापन अगणित वृक्ष, बेलि पौधों में; वृक्ष, बेलि,पौधे अपना-अपनापन पुष्प और कलियों में, पुष्प और कलियाँ अपना-अपनापन अपना सौरव-समीर में मिश्रित करने को आकुल है और वह समीर भी तो निरंतर चंचल रहकर किसी ऐसे को ढूँढ़ रह है जिसके अंचल को एक बार-केवल एक बार - लहराकर वह उसिमे विलुप्त हो जाये पतंग अपना अपनापन दीपक के आगे , दीपक अपना अपनापन दिवस के आगे-,दिवस अपना-अपनापन रजनी के आगे,और रजनी-शशि -तारक - मणी -मंडित रजनी-अपना -अपनापन सुर्य के आगे सुर्य अर्पण करने को व्याकुल है;और वह सुर्य भी तो आदिसृष्टि से किसी ऐसी महज्ज्योती के चरणों को प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रहा है जिसकी एक बार आरती उतारकर वह बुझ जाये
इसी प्रकार वादक अपना अपनापन स्वरों में प्रकट करके यह चाहता है की वे किसी के कानो में क्षण भर गूंज कर,विस्तृत गगन में क्षीण होकर विलीन हो जायं चित्रकार अपना अपनापन रेखाओं तथा रंगों में प्रकट करके यह इच्छा करता है की वे किसी की आँखों में पल भर प्रतिबिम्बित होकर, धुंधले बंकर तिरोहित हो जायंशिल्पकार अपना अपनापन पाषाण-प्रतिमाओं में अभिव्यक्त करके यह अभिलाषा करता है की वे किसी की मृदुल हथेली का क्षणिक स्पर्श प्राप्त कर खण्ड-खण्ड होकर धरा पर बिखर जाएँ और, कवि अपना अपनापन सजीव शब्द-पदों में व्यंजित करके चाहता है की वे किसी के ह्रदय को शीघ्रता से छूकर संसार के सघन कोलाहल में छिप जाएँ- खो जाए
हाँ, तो इस स्वार्थी मानव की, जिसमे से मैं भी एक हूँ,चरम अभिलाषा आत्मानंद नहीं,आत्मसमर्पण हैइसका सौभाग्य मुझे अब तक प्राप्त न हो सका इसी कारण इतनी जल्दी आज मैं कुछ अपनापन लेकर तेरे चरणों में फिर उपस्थित हुआ हूँ इस अनिवार्य स्वार्थ के लिए मैं क्षमा की भिक्षा मांगता हूँ मुझे विश्वास है की मैं निराश नहीं लौटूंगा कभी नहीं लौटा
इसी प्रकार वादक अपना अपनापन स्वरों में प्रकट करके यह चाहता है की वे किसी के कानो में क्षण भर गूंज कर,विस्तृत गगन में क्षीण होकर विलीन हो जायं चित्रकार अपना अपनापन रेखाओं तथा रंगों में प्रकट करके यह इच्छा करता है की वे किसी की आँखों में पल भर प्रतिबिम्बित होकर, धुंधले बंकर तिरोहित हो जायंशिल्पकार अपना अपनापन पाषाण-प्रतिमाओं में अभिव्यक्त करके यह अभिलाषा करता है की वे किसी की मृदुल हथेली का क्षणिक स्पर्श प्राप्त कर खण्ड-खण्ड होकर धरा पर बिखर जाएँ और, कवि अपना अपनापन सजीव शब्द-पदों में व्यंजित करके चाहता है की वे किसी के ह्रदय को शीघ्रता से छूकर संसार के सघन कोलाहल में छिप जाएँ- खो जाए
हाँ, तो इस स्वार्थी मानव की, जिसमे से मैं भी एक हूँ,चरम अभिलाषा आत्मानंद नहीं,आत्मसमर्पण हैइसका सौभाग्य मुझे अब तक प्राप्त न हो सका इसी कारण इतनी जल्दी आज मैं कुछ अपनापन लेकर तेरे चरणों में फिर उपस्थित हुआ हूँ इस अनिवार्य स्वार्थ के लिए मैं क्षमा की भिक्षा मांगता हूँ मुझे विश्वास है की मैं निराश नहीं लौटूंगा कभी नहीं लौटा
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